दुनिया को एकदम नए विचारों से हिला देने वाले, बौद्धिक जगत में तहलका मचा देने वाले ओशो ने सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, हजारों प्रवचन दिए। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से दुनियाभर के वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों को प्रभावित किया। ओशो के 10 विचार जो उन्हें सबसे अलग बनाते हैं:
1. धर्मों की कोई जरूरत नहीं
ओशो कहते हैं कि 'सदियों से आदमी को विश्वास, सिद्धांत, मत बेचे गए हैं, जो कि एकदम मिथ्या हैं, झूठे हैं, जो केवल तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं, तुम्हारे आलस्य का प्रमाण हैं। तुम करना कुछ चाहते नहीं, और पहुंचना स्वर्ग चाहते हो।' परंतु कोई पंडित-पुरोहित या तथाकथित धर्म नहीं चाहते कि तुम स्वयं तक पहुंचो, क्योंकि जैसे ही तुम स्वयं की खोज पर निकलते हो, तुम सभी तथाकथित धर्मों- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के बंधनों से बाहर आ जाते हो। उस सभी के बाहर आ जाते हो, जो मूढ़तापूर्ण और निरर्थक हैं, क्योंकि तुमने स्वयं का सत्य पा लिया होता है।
धर्म तुम्हें भयभीत कर विश्वास करना सिखाता है ताकि तुम उनके ग्रंथों पर सवाल खड़े न करो। प्रॉफेटों पर सवाल खड़े न करो। सदियों से धर्मों ने यही किया है। दुनिया में अब धर्मों की जरूरत नहीं। धर्म का कोई भविष्य नहीं।
धर्म नहीं, धार्मिकता : मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है। कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई। धर्म के नाम पर आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं। नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में। ओशो कहते हैं, आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं, उसका कोई धर्म नहीं।
धर्मों के कारण ही धर्मों का विवाद इतना है, धर्मों की एक-दूसरे के साथ इतनी छीना-झपटी है। धर्मों का एक-दूसरे के प्रति विद्वेष इतना है कि धर्म, धर्म ही नहीं रहे। उन पर श्रद्धा सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनमें बुद्धि नाममात्र को नहीं है। अब सिर्फ मूढ़ ही पाए जाते हैं- मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों में। जिसमें थोड़ा भी सोच-विचार है, वहां से कभी के विदा हो चुके हैं, क्योंकि जिसमें थोड़ा-सोच-विचार है, उसे दिखाई पड़ेगा कि धर्म ने नाम से जो चल रहा है वह धर्म नहीं, कुछ और है।
जीसस चले जब जमीन पर तो धर्म चला; पोप जब चलते हैं तो धर्म नहीं चलता, कुछ और चलता है। बुद्ध जब चले तो धर्म चला; अब पंडित हैं, पुजारी हैं, पुरोहित हैं, वे चलते हैं। उनके चलने में वह प्रसाद नहीं। धर्म के नाम पर वैमनस्य है, ईर्ष्या है, हिंसा है, खून-खराबा है। मस्जिद और मंदिर ने इतना लड़वाया है कि कोई भरोसा भी करना चाहे तो कैसे करे और शास्त्र आज नहीं, कल झूठे हो जाते हैं। सत्य तो शास्त्रों में नहीं। -अथातो भक्ति जिज्ञासा, भाग-1
ओशो कहते हैं कि आधुनिक मनुष्य अभी तक अस्तित्व में आया ही नहीं है। दुनिया के सभी लोग बहुत पुरातन और बहुत प्राचीन हैं। किसी भी समकालीन व्यक्ति से भेंट कर पाना बहुत दुर्लभ है। कोई दस हजार वर्ष पूर्व स्थापित किए गए धर्म से संबंधित है, कोई दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित किए गए धर्म से जुड़ा है- ये लोग समकालीन नहीं हैं। ये लोग आधुनिक युग में तो रह रहे हैं, पर ये आधुनिक हैं नहीं। और इसी कारण एक बड़ी समस्या पैदा हो गई है। तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता है जिससे कि आधुनिक मनुष्य इसका उपयोग करे और आधुनिक मनुष्य उपलब्ध है नहीं। टेक्नोलॉजी, प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, विज्ञान उपलब्ध है, लेकिन वे व्यक्ति जो इसका रचनात्मक उपयोग कर सकें, उपलब्ध नहीं हैं।
2. ईश्वर नहीं है
ओशो कहते हैं कि ईश्वर है तो उसके साथ सभी तरह का पाखंड जुड़ा रहेगा- पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, अवतारवाद, पैगम्बर, पूजा-पाठ, धर्मांतरण, धर्मग्रंथ, मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि सभी तरह के पाखंड जुड़े रहेंगे। प्रॉफेट और धर्मग्रंथों के बगैर ईश्वर की कल्पना मुश्किल है। ओशो ने ईश्वरवादी और ईश्वर-विरोधी दोनों ही विचारधाराओं का विरोध किया। ईश्वरवादी मंदिर, मस्जिद, चर्च, सिनेगॉग आदि जगहों पर जाकर ईश्वर से चूक गए और ईश्वर-विरोधी इनसे लड़कर चूक गया। ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
3. विश्वास नहीं, संदेह करो
ओशो कहते हैं कि धर्म या विज्ञान के रेडीमेड सत्यों से काम नहीं चलेगा। मैं संशय (दुविधा) की बात नहीं कर रहा हूं। मैं संदेह की बात कर रहा हूं। संदेह करोगे तभी सत्य तक पहुंच सकते हो। श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं, संदेह मुक्त करता है।
दुनियाभर के धर्म तुम्हें विश्वास करना सिखाते हैं। यह धर्मों की चालाकियां हैं। सभी तरह की शिक्षा चित्त को बूढ़ा करती है। यह चित्त को जगाती नहीं, भरती है और भरने से चित्त बूढ़ा होता है। विचार भरने से चित्त थकता, बोझिल होता और बूढ़ा होता है! विचार देना, स्मृति को भरना है। वह विचार या विवेक का जागरण नहीं है। स्मृति विवेक नहीं है। स्मृति तो यांत्रिक है। विवेक है चैतन्य। विचार नहीं देना है, विचार को जगाना है। विचार जहां जागृत है, वहां चित्त सदा युवा है। और जहां चित्त युवा है, वहां जीवन का सतत संघर्ष है, वहां चेतन के द्वार खुले हैं और वहां सुबह की ताजी हवाएं भी आती हैं और नए उगते सूरज का प्रकाश भी आता है। व्यक्ति जब दूसरों के विचारों और शब्दों की कैद में हो जाता है, तो सत्य के आकाश में उसकी स्वयं की उड़ने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है।
दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रिया-कांड, ग्रह-नक्षत्र, किताब और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। दुनिया के तमाम धर्म 'विश्वास' सिखाते हैं, लेकिन वे जो विश्वास सिखाते हैं उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठाता। धर्मों के विश्वास और धारणाओं पर सभी आंखें बंद करके मानते रहते हैं। यदि कोई इस पर सवाल उठाता भी है तो उसे धर्म-विरोधी या नास्तिक मान लिया जाता है। ईशनिंदा का खतरा पैदा हो जाता है।
ओशो अपनी पुस्तक शिक्षा में क्रांति और एक-एक कदम, क्रांति के बीज आदि तमाम किताबों में दर्ज प्रवचनों के माध्यम से संदेह और विचार को जाग्रत करने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि किसी बात को मानना नहीं, जानना चाहिए। विचारवान लोग ही जानने के बारे में सोचते हैं। विश्वास से अंधश्रद्धा का जन्म होता है।
'मानने के धोखे में मत पड़ना। जानने की यात्रा करो। जानो तो निश्चित देव ही है, पत्थर तो है ही नहीं। मूर्तियों में ही नहीं, पहाड़ों में भी जो पत्थर है वहां भी देवता ही छिपा है। जानने से तो परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं है। जाना कि परमात्मा के द्वार खुले- हर तरफ से, हर दिशा से, हर आयाम से। कंकड़-कंकड़ में वही है। तृण-तृण में वही है। पल-पल में वही है। लेकिन जानने से। विश्वास से शुरू मत करना; बोध से शुरू करो। विश्वास तो आत्मघात है। अगर मान ही लिया तो खोजोगे कैसे? और तुम्हारे मानने में सत्य कैसे हो सकता है? एक क्षण पहले तक तुम्हें पत्थर दिखाई पड़ता था, और अब तुमने मान लिया और देवता देखने लगे। यह देखने लगे चेष्टा करके, लेकिन भीतर किसी गहराई में तो तुम अब भी जानोगे न कि पत्थर है! उस भीतर की गहराई को कैसे बदलोगे? संदेह तो कहीं न कहीं छिपा ही रहेगा, बना ही रहेगा। इतना ही होगा कि ऊपर-ऊपर विश्वास हो जाएगा; संदेह गहरे में सरक जाएगा। यह तो और खतरा हो गया। संदेह ऊपर-ऊपर रहता, इतना हानिकर नहीं था। यह तो संदेह और भीतर चला गया, और प्राणों के रग-रेशे में समा गया। यह तो तुम्हारा अंतःकरण बन गया। यही तो हुआ है। दुनिया में इतने लोग हैं, करोड़ों-करोड़ों लोग मंदिर जाते, मस्जिद जाते, गुरुद्वारा जाते, चर्च जाते और इनके भीतर गहरा संदेह भरा है। ईसाई और हिन्दू और मुसलमान सब ऊपर-ऊपर हैं और भीतर संदेह की आग जल रही है। और वह संदेह ज्यादा सच्चा है, क्योंकि संदेह तुमने थोपा नहीं है। ज्यादा स्वाभाविक है। और तुम्हारा विश्वास थोपा हुआ है, आरोपित है। आरोपित विश्वास स्वाभाविक संदेह को कैसे मिटा सकेगा? आरोपित विश्वास तो नपुंसक है। स्वाभाविक संदेह अत्यंत ऊर्जावान है।
4. जोरबा टू बुध
ओशो कहते हैं कि 'जोरबा' का अर्थ होता है- एक भोग-विलास में पूरी तरह से डूबा हुआ व्यक्ति और 'बुद्धा' का अर्थ निर्वाण पाया हुआ। जोरबा केवल शुरुआत है। यदि तुम अपने जोरबा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त होने की स्वीकृति देते हो, तो तुम्हें कुछ बेहतर, कुछ उच्चतर, कुछ महत्तर सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वह मात्र वैचारिक चिंतन से पैदा नहीं हो सकता, वह तुम्हारे अनुभव से जन्मेगा, क्योंकि वे छोटे-छोटे, क्षुद्र अनुभव उकताने वाले हो जाएंगे। गौतम बुद्ध स्वयं इसीलिए बुद्ध हो पाए, क्योंकि वे जोरबा की जिंदगी खूब अच्छी तरह जी चुके थे। पूरब ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि 29 वर्षों तक बुद्ध इस तरह जीए, जैसा कोई जोरबा कभी न जीया होगा।
ओशो कहते हैं कि दरिद्र को 'नारायण' कहने से ही इस देश में दरिद्रता फैल गई है। यदि आप दरिद्रता और गरीबी को सम्मान देंगे तो आप कभी भी उससे मुक्त नहीं हो सकते। मेरा संन्यासी ऐसा होना चाहिए कि वह पहले धन पर ध्यान दे फिर ध्यान की चिंता करे।
ओशो पर आरोप हैं कि वे सिर्फ अमीरों के गुरु हैं। उन्होंने पूंजीवाद को बढ़ावा दिया। उनके पास लगभग 100 रॉल्स रॉयस कारें थीं। वे कभी गरीबों और गरीबी का पक्ष नहीं लेते थे। ओशो कहते हैं कि दुखवादी नहीं, सुखवादी बनो। सुखी रहने के सूत्र ढूंढो तो समृद्धि स्वत: ही आने लगेगी।
ओशो कहते हैं कि किसी गांव में दस हजार गरीब हो और दो आदमी उनमें से मेहनत करके अमीर हो जाएं तो बाकी नौ हजार नौ सौ निन्यानवे लोग कहेंगे कि इन दो आदमियों ने अमीर होकर हमको गरीब कर दिया। और कोई यह नहीं पूछता कि जब ये दो आदमी अमीर नहीं थे तब तुम अमीर थे? तुम्हारे पास कोई संपत्ति थी, जो इन्होंने चूस ली। नहीं तो शोषण का मतलब क्या होता है? अगर हमारे पास था ही नहीं तो शोषण कैसे हो सकता है? शोषण उसका हो सकता है जिसके पास हो। अमीर के न होने पर हिन्दुस्तान में गरीब नहीं था? हां, गरीबी का पता नहीं चलता था। क्योंकि पता चलने के लिए कुछ लोगों का अमीर हो जाना आवश्यक है। तब गरीबी का बोध होना शुरू होता है। बड़े आश्चर्य की बात है, जो लोग मेहनत करें, बुद्धि लगाएं, श्रम करें और अगर थोड़ी-बहुत संपत्ति इकट्ठा कर लें तो ऐसा लगता है कि इन लोगों ने बड़ा अन्याय किया होगा।
पूंजीवाद शोषण की व्यवस्था नहीं है। पूंजीवाद एक व्यवस्था है श्रम को पूंजी में कन्वर्ट करने की। श्रम को पूंजी में रूपांतरित करने की व्यवस्था है। लेकिन जब आपका श्रम रूपांतरित होता है, जब आपको या मुझे दो रुपए मेरे श्रम के मिल जाते हैं तो मैं देखता हूं जिसने मुझे दो रुपए दिए उसके पास कार भी है, बंगला भी खड़ा होता जाता है। स्वभावत: तब मुझे खयाल आता है कि मेरा कुछ शोषण हो रहा है। और मेरे पास कुछ भी नहीं था उसका शोषण हुआ।
5. परिवार की कोई जरूरत नहीं
ओशो का सबसे विवादित विचार है परिवार की परंपरा को समाप्त कर कम्यून की अवधारणा को स्थापित करना। ओशो की नजर में जब परिवार की जरूरत नहीं तो विवाह गौण हो जाता है।
परिवार : ओशो कहते हैं कि एक-एक परिवार में कलह है। जिसको हम गृहस्थी कहते हैं, वह संघर्ष, कलह, द्वेष, ईर्ष्या और चौबीसों घंटे उपद्रव का अड्डा बनी हुई है। लेकिन न मालूम हम कैसे अंधे हैं कि देखने की कोशिश भी नहीं करते। बाहर जब हम निकलते हैं तो मुस्कराते हुए निकलते हैं। घर के सब आंसू पोंछकर बाहर जाते है- पत्नी भी हंसती हुई मालूम पड़ती है। पति भी हंसता हुआ मालूम पड़ता है। ये चेहरे झूठे हैं। ये दूसरों को दिखाई पड़ने वाले चेहरे हैं। घर के भीतर के चेहरे बहुत आंसुओं से भरे हुए है। चौबीस घंटे कलह और संघर्ष में जीवन बीत रहा है। फिर इस कलह और संघर्ष के परिणाम भी होंगे ही।
विवाह : हमने सारे परिवार को विवाह के केंद्र पर खड़ा कर दिया है, प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जाएंगे। अद्भुत झूठी बात है, और पांच हजार वर्षों में भी हमको इसका ख्याल नहीं आ सका है। हम अद्भुत अंधे हैं। दो आदमियों के हाथ बांध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई अनिवार्यता नहीं है बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते हैं, वे आपस में प्रेम कभी नहीं कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में- जहां कोई बंधन नहीं, कोई मजबूरी नहीं है। किंतु हम अविवाहित स्त्री या पुरुष के मन में युवक ओर युवती के मन में उस प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते हैं। फिर हम कहते हैं कि विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए।
6. समाजवाद से सावधान
ओशो कहते हैं कि समाजवाद से सावधान। यह जीवन-विरोधी विचारधारा है। समाजवाद और साम्यवाद दोनों ही जीवन की व्यवस्था को राज्य के हाथों में दे देने का उपाय है। जिसे आज पूंजीवाद कहते हैं, वह पीपुल्स कैपिटलिज्म है, वह जन-पूंजीवाद है। और जिसे समाजवाद और साम्यवाद कहा जाता है, वह स्टेट कैपिटलिज्म यानी राज्य-पूंजीवाद है। और कोई फर्क नहीं है।
ओशो रजनीश की दो किताबें हैं- समाजवाद से सावधान और नए समाज की खोज। दोनों ही में उन्होंने समाजवाद या कम्युनिज्म का विरोध किया है। ओशो कहते हैं कि पूंजीवाद ठीक से विकसित हो तो समाजवाद उसका सहज परिणाम है। नौ महीने का गर्भ हो तो बच्चा सहज और चुपचाप पैदा हो जाता है। पूंजीवाद ठीक से विकसित न हो तो समाजवाद की बात सुसाइडल है, आत्मघाती है।
ओशो कहते हैं कि समाजवाद हो या साम्यवाद हो, सोशलिज्म हो या कम्युनिज्म हो, एक बात पक्की है कि व्यक्ति की हैसियत को मिटा देना है, व्यक्ति को पोंछ डालना है, व्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर देना है, संपत्ति का व्यक्तिगत अधिकार छीन लेना है और देश की सारी जीवन-व्यवस्था राज्य के हाथ में केंद्रित कर देनी है। लेकिन हमारे जैसे मुल्क में, जहां कि राज्य निकम्मे से निकम्मा सिद्ध हो रहा है, वहां अगर हमने देश की सारी व्यवस्था राज्य के हाथ में सौंप दी, तो सिवाय देश के और गहरी गरीबी और गहरी बीमारी में गिरने के कोई उपाय न रह जाएगा।
7. नव संन्यास
वर्ष 1970 में मनाली के एक ध्यान शिविर में, ‘श्रीकृष्ण मेरी दृष्टि में’ प्रवचनमाला के साथ-साथ ओशो के ‘नव-संन्यास’ आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इस दौरान उन्होंने दुनियाभर के धर्मों में प्रचलित संन्यास से भिन्न एक नए तरह का संन्यासी होने का कॉन्सेप्ट रखा।
ओशो ने एक हंसते-खेलते अभिनव संन्यास की प्रस्तावना की। इस संन्यास में कोई त्याग और पलायन नहीं है, बल्कि ध्यान द्वारा स्वयं को रूपांतरित करके जीवन को और सुंदर व सृजनात्मक बनाने की भावना है। संसार में रहते हुए संसार का न होना, कमलवत जीना, अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं से निर्भय होकर क्षण-क्षण होश में जीना ओशो का नव-संन्यास है।
इस नव-संन्यास में संन्यासी को कोई भगवा या गेरुए वस्त्र पहनने की जरूरत नहीं। माला और नियमों का पालन करने की जरूरत नहीं। पूजा-पाठ, ईश्वर-प्रार्थना आदि करने की जरूरत नहीं। बस प्रतिदिन ध्यान करने की शर्त है। ओशो की नजर में संन्यासी वह है, जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में यह एक संन्यास है, जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है।
ओशो कहते हैं कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है- अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। वह संन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए, क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता? लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा।
'जीवन को आत्म-अज्ञान के बिंदु से देखना संसार है; आत्म-ज्ञान के बिंदु से देखना संन्यास है। इसलिए जब कोई कहता है कि मैंने संन्यास लिया है, तो मुझे बात बड़ी असत्य मालूम होती है। यह लिया हुआ संन्यास ही संसार के विरोध की भ्रांति पैदा कर देता है। संन्यास भी क्या लिया जा सकता है? क्या कोई कहेगा कि ज्ञान मैंने लिया है? लिया हुआ ज्ञान भी क्या कोई ज्ञान होगा?
ऐसा ही लिया हुआ संन्यास भी, संन्यास नहीं होता है। सत्य ओढ़े नहीं जाते हैं। उन्हें तुम्हारे भीतर जगाना होता है। संन्यास का जन्म होता है। वह समझ से आता है। उस समझ से हम परिवर्तित होते जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी समझ बदलती है, हमारी दृष्टि बदलती है और अनायास ही आचरण भी बदल जाता है। संसार जहां का तहां होता है, पर हमारे भीतर संन्यास का जन्म होता जाता है।
संन्यास का अर्थ है : यह बोध कि मैं शरीर ही नहीं हूं, आत्मा हूं। इस बोध के साथ ही भीतर आसक्ति और अज्ञान नहीं रह जाता है। संसार बाहर था, अब भी वह बाहर होगा, पर भीतर उसके प्रति राग-शून्यता होगी, या यूं कहें कि संसार अब भीतर नहीं होगा।' -ओशो, साधना पथ, प्रवचन 3
8. संभोग से समाधि की ओर
'संभोग से समाधि की ओर' उनकी बहुचर्चित पुस्तक है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा अधिक सेक्स के संबंध में अन्य दूसरी पुस्तकों में उन्होंने सेक्स को एक अनिवार्य और नैसर्गिक कृत्य बताकर इसका समर्थन किया है। जबकि आमतौर पर दुनियाभर के धर्म सेक्स का विरोध करते हैं। संन्यास लेना हो या किसी भी संप्रदाय का संत बनना हो तो पहली शर्त ही यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन करें, लेकिन ओशो के संन्यास की शुरुआत ही भोग से तृप्त होकर मुक्त होने के बाद होती है।
ओशो के सेक्स संबंधी विचारों का विश्वभर के लोगों ने उनके काल में घोर विरोध किया था और आज भी करते हैं। ओशो कहते हैं कि सेक्स पहली सीढ़ी है और समाधि अंतिम। संभोग से समाधि की ओर, युवक और योनि व क्रांतिसूत्र, तंत्र सूत्र, विज्ञान भैरव तंत्र आदि कई किताबों के माध्यम से ओशो ने सेक्स, युवक, विद्रोह, प्रेम विवाह, तलाक आदि पर अपने बेबाक विचार रखे।
वे कहते हैं कि यदि विवाह करना हो तो उसमें कई तरह की कानूनी बाधा खड़ी करो और तलाक के लिए कानून आसान बनाए। अभी इसका ठीक उल्टा है। विवाह करना आसान है लेकिन तलाक लेना कठिन।
क्रांतिसूत्र में ओशो ने किसी भी तरह के वाद, पब्लिक ओपिनियन और दमन से मुक्ति की जोरदार वकालत की है तो दूसरी ओर ओशो अपोजिट सेक्स के बच्चों को ज्यादा-से-ज्यादा नग्न रखने की सलाह देते हैं, तो कहीं हर नगर में खजुराहो जैसी नग्न प्रतिमाओं के होने की वकालत करते हैं।
सेक्स संबंधी कुछ विचार :
- 'संभोग से समाधि की ओर' में ओशो कहते हैं कि सेक्स का विरोध नहीं है ब्रह्मचर्य, बल्कि सेक्स का ट्रांसफॉर्मेशन है। जो सेक्स का दुश्मन है, वह कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सकता।
- जिस दिन इस देश में सेक्स की सहज स्वीकृति हो जाएगी, उस दिन इतनी बड़ी ऊर्जा मुक्त होगी भारत में कि हम आइंस्टीन पैदा कर सकते हैं।
- पति अपनी पत्नी के पास ऐसे जाए, जैसे कोई मंदिर के पास जाता है। पत्नी अपने पति के पास ऐसे जाए, जैसे कोई परमात्मा के पास जाता है, क्योंकि जब दो प्रेमी संभोग करते हैं, तो वास्तव में वे परमात्मा के मंदिर से ही गुजरते हैं।
- संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के हासिल होनी शुरू हो जाएगी।
- परिवार नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो जानी चाहिए। इसे किसी की स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता।
9. गांधी का विरोध
ओशो ने अपने अधिकतर प्रवचनों में गांधीजी की विचारधारा का विरोध किया है। उनका मानना था कि यह विचारधारा मनुष्य को पीछे ले जाने वाली विचारधारा है। यह आत्मघाती विचारधारा है।
ओशो कहते हैं, 'गांधी गीता को माता कहते हैं, लेकिन गीता को आत्मसात नहीं कर सके, क्योंकि गांधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को कहां रखेगी? तो गांधी उपाय खोजते हैं, वे कहते हैं कि यह जो युद्ध है, यह सिर्फ रूपक है, यह कभी हुआ नहीं।'
कृष्ण की बात गांधी की पकड़ में कैसे आ सकती है? क्योंकि कृष्ण उसे समझाते हैं कि तू लड़। और लड़ने के लिए जो-जो तर्क देते हैं, वह ऐसा अनूठा है, जो कि इसके पहले कभी भी नहीं दिया गया था। परम अहिंसक ही दे सकता है, उस तर्क को। ओशो कहते हैं, मेरी दृष्टि में कृष्ण अहिंसक हैं और गांधी हिंसक। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे जो दूसरों के साथ हिंसा करें और दूसरे वे जो खुद के साथ हिंसा करें। गांधी दूसरी किस्म के व्यक्ति थे। ओशो की एक किताब है : 'अस्वीकृति में उठा हाथ'। यह किताब पूर्णत: गांधी पर केंद्रित है।
ओशो कहते हैं कि महात्मा गांधी सोचते थे कि यदि चरखे के बाद मनुष्य और उसकी बुद्धि द्वारा विकसित सारे विज्ञान और टेक्नोलॉजी को समुद्र में डुबो दिया जाए, तब सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। और मजेदार बात इस देश ने उनका विश्वास कर लिया! और न केवल इस देश ने बल्कि दुनिया में लाखों लोगों ने उनका विश्वास कर लिया कि चरखा सारी समस्याओं का समाधान कर देगा।
10. एक विश्व शासन
ओशो कहते हैं कि सरहदों की कोई जरूरत नहीं। अब यह पागलपन समाप्त होना चाहिए। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) ने एक विश्व शासन का प्रयोग करके देखा था लेकिन वह सफल नहीं हो सका। वह एक वाद-विवाद का क्लब बनकर रह गया। दूसरे विश्वयुद्ध ने राष्ट्र संघ की विश्वसनीयता ही खत्म कर दी, लेकिन उसकी जरूरत अभी भी थी इसलिए उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ निर्मित करना पड़ा। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ उतना ही असफल रहा जितना कि राष्ट्र संघ। फिर से वह एक वाद-विवाद क्लब बन गया है, क्योंकि उसके हाथ में कोई ताकत नहीं है। वह कुछ भी कार्यान्वित नहीं कर सकता। वह सिर्फ एक औपचारिक चर्चा करने का क्लब है। अभी संयुक्त राष्ट्र संघ का जो तरीका है- कुछ देशों को वीटो करने का अधिकार है- उसे विसर्जित कर देना चाहिए।
वह भी (संयुक्त राष्ट्र संघ) एक सत्ता की दौड़ है। और यह कई उपद्रवों का कारण बना है: एक अकेला शासन सारी दुनिया के लिए कुछ भी वीटो (इंकार) कर सकता है। इसकी जगह विभिन्न देशों के एक-एक राष्ट्रपति को मतदान करने का अधिकार होगा, जो कि उस देश की मैट्रिक परीक्षा में उत्तीर्ण हुई जनसंख्या पर निर्भर होगा। इससे पूरी दुनिया का सत्ता का ढांचा बदल जाएगा। उसके बाद उसकी बारीकियों पर सोच-विचार करना बड़ा सरल है।
उसे सफल बनाने का सरल उपाय यह होगा कि उसे विश्व शासन बना दें। सभी देशों को चाहिए कि वे अपनी फौजें, अपने हथियार विश्व शासन को समर्पित कर दें। निश्चित ही, अगर एक ही शासन हो तो न फौजों की जरूरत होगी न हथियारों की। तुम युद्ध किसके साथ करोगे?
राजनीतिज्ञ मूलत: गहरे में नपुंसक होते हैं इसलिए उनमें सत्ता की इतनी लालसा होती है।
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